परिचय - एशिया द्वीप पर स्थित भारत को आज समस्त विश्व भविष्य के मार्गदर्शन के रुप में देख रहा है। बड़ी- बड़ी अंतराष्ट्रीय हस्तियों तो आज भारत को विश्वगुरु के नाम से संबोधित करने लगी हैं। लेकिन आज यदि इस विषय में भारत के अतीत की बात की जाए, तो हमारे सामने भारत के इतिहास के कई अध्याय खुलकर आते हैं। जिसमें कुषाण, हुन, अफगान, तुर्क, खिलजी, लोधी और मुगलों से लेकर अंग्रेज शामिल हैं। पर क्या आपको पता है? की इन सबसे पूर्व भारत में दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय था। चलिए जानते है, नालंदा विश्वविद्यालय के विषय में।
आज भले ही भारत के कॉलेज और विश्वविद्यालय विश्व के टॉप शैक्षणिक संस्थापनों में शामिल न हो, लेकिन एक काल ऐसा भी था, जब भारत विश्व में शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। भारत में ही दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय खुला था, जिसे हम नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University) के नाम से जानते हैं। दुनिया के सबसे पुराने शिक्षण संस्थानों की बात जब भी आती है तो नालंदा विश्वविद्यालय का नाम सबसे ऊपर आता है. भारत के राज्य बिहार की राजधानी पटना से करीब 120 किलोमीटर दक्षिण-उत्तर में प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University) के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।
नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास -
इसके इतिहास की बात की जाए तो, नालंदा विश्विद्यालय का उदय 5वीं शताब्दी में माना जाता है। नालंदा विश्वविद्यालय विश्व के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। 7 वीं शताब्दी के शुरुआती चीनी तीर्थयात्री, जुआनज़ांग ( Xuanzang ) के अनुसार स्थानीय परंपरा बताती है कि नालंदा नाम एक नागा से आया है – भारतीय धर्मों में नाग देवता – जिसका नाम नालंदा था।
नालंदा संस्कृत के 3 शब्दों से मिल कर बना है – ना + अलम + दा । जिसका अर्थ होता है न रुकने वाला ज्ञान का प्रवाह। ह्यून सांग ( Xuanzang ) 7 वीं शताब्दी में नालंदा आते हैं। उन्होनें नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त वंश के शासक कुमार गुप्ता 1 को दिया हैं। वे लिखते हैं कि यहाँ 10,000 विद्यार्थी और 2,000 से अधिक अध्यापक रहते थे। जहाँ चीन, जापान, कोरिया, इंडोनेशिया, पर्शिया, तुर्की और श्री लंका जैसे देशों से लोग पढ़ने के लिए आते थे।
यहां असंख्य विषयों जैसे - बुद्ध धर्म शिक्षा ( Buddhism ), गणित, खगोल विज्ञान ( Astronomy ), दर्शनशास्त्र ( Philosphy ), औषधि ( Medicine ) और व्याकरण ( Grammar ) आदि की शिक्षा भी दी जाती थी। यहाँ तक कि उपनिषदों की कुछ असली प्रतियाँ भी यहाँ मौजूद मानी जाती थीं। केवल इतना ही नहीं इसके अतिरिक्त यहाँ पढ़ने वालों से किसी भी तरह का शुल्क नहीं लिया जाता था।
यहाँ से शिक्षा ग्रहण करने वालों में हर्षवर्धन, वासुबंधू, धर्मपाल, नागार्जुन, ह्यून सांग, पद्मसंभव जैसे बड़े-बड़े नाम शामिल हैं। ऐसा भी माना जाता है प्रसिद्ध गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट इस विश्विद्यालय के विद्यार्थी रहे थे। ज्ञान का ये केंद्र लगभग 800 सालों तक ऐसे ही फलता-फूलता रहा। लेकिन 12 वीं शताब्दी में अचानक ही यह अतीत के अंधेरों में खो जाता है। इसके पीछे की कहानी बड़ी रोमांचक है।
आक्रमणकारियों द्वारा विध्वंश -
इतिहास के अनुसार इस विश्वविद्यालय पर तीन बार आक्रमण हुआ है। जिसके बाद दो बार इसे उस समय राज्य करने वाले राजाओं ने फिर से बनवा दिया पर जब तीसरी बार हमला हुआ जो कि अब तक का सबसे बड़ा और विनाशकारी हमला था।
इस हमले में यहाँ के पुस्तकालय की काफी सारी किताबें और दुर्लभ ग्रंथ जल गए थे। माना जाता है की इस विश्वविद्यालय के विनाश से ही भारत में बौद्ध धर्म का भी पतन होना शुरू हो गया।
पहला हमला:
विश्वविद्यालय पर पहला हमला सम्राट स्कंदगुप्त के समय में 455-467 ईस्वी में हुआ था। यह हमला मिहिरकुल के तहत ह्यून की वजह से हुआ था। इस हमले में विश्वविद्यालय की इमारतो के साथ पुस्तकालय को भी काफी नुकसान पहुँचा था। बाद में स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारीयों के द्वारा पुस्तकालय की मरम्मत करवा दी गई और एक नई बड़ी इमारते बनवा दी गई।
दूसरा हमला:
इस विश्वविद्यालय पर दूसरा हमला 7वीं शताब्दी की शुरुआत में गौदास ने किया था। उस समय बौद्ध राजा हर्षवर्धन का शासन हुआ करता था। 606-648 ईस्वी में उन्होंने इस विश्वविद्यालय की मरम्मत करवाई थी।
तीसरा और सबसे विनाशकारी हमला:
इस विनाशकारी हमले के समय यहाँ पल राजवंश का राज्य हुआ करता था। मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी, जो की एक तुर्क सेनापति था, उस समय अवध में तैनात था। इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन
बख्तियार खिलजी और उसकी सेना ने लगभग 1193 सी ई में, प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया था।
उसने पुस्तकालय की किताबों को आग लगा दी। जो कुछ भी वहाँ था उसे लूट लिया विश्वविद्यालय में रह रहे हजारों भिक्षुओं और विद्वानों को इसलिए जला कर मार दिया क्योंकि वह इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार करना चाहता था और उसे बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार से चिढ़ थी। इन बातों का जिक्र फारसी इतिहासकार ‘मिनहाजुद्दीन सिराज’ द्वारा लिखी गई किताब ‘तबाकत-ए-नासिरी’ में मिलता है ।
खिलजी के द्वारा नालंदा के पुस्तकालय को जलाने के पीछे एक कहानी प्रसिद्ध है। कहा जाता है की खिलजी एक बार बुरी तरह से बीमार पड़ गया। सबने उसे नालंदा विश्वविद्यालय के वैद्य आचार्य राहुल श्रीभद्र से इलाज करवाने के लिए कहा पर खिलजी को ना तो आयुर्वेद पर ना वैद्यों पर जरा भी भरोसा था। उसने वैद्य जी के सामने कोई भी दवा ना खाने की शर्त रख दी।
वैद्य जी तैयार हो गए उन्होंने कहा कि आप कुरान के इतने पन्ने पढ़ लीजिएगा आप ठीक हो जाएंगे और ऐसा ही हुआ।
ठीक होने के बाद उसने सोचा की इस तरह से तो भारतीय विद्वान और शिक्षक पूरी दुनिया में मशहूर हो जाएंगे। भारत से बौद्ध धर्म और आयुर्वेद के ज्ञान को मिटाने के लिए उसने नालंदा विश्वविद्यालय और इसके पुस्तकालय में आग लगा दी और हजारों धार्मिक विद्वानों और बौद्ध भिक्षुओं को भी मार डाला।
खिलजी के ठीक होने के संदर्भ मे एक प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है की किसी भी प्रकार के धर्मग्रंथ पढ़ लेने मात्र से कोई बीमारी ठीक किसे हो सकती है ?
इसका उत्तर यह है की वैद्य आचार्य राहुल श्रीभद्र जी ने धर्मग्रंथ के पन्नों पर औषधी का लेप लगा दिया था। जिससे उसे पढ़ने के दौरान जब भी खिलजी पन्नों को पलटता तो अपनी जीभ से उँगली को गीला करता था इससे औषधी उसके मुँह मे चली जाती थी । और वह अनजाने मे औषधी का सेवन करता रहा।
कदम भविष्य की ओर -
1915 में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस साइट का अध्ययन किया और 6 मंदिरों और 11 मठों की खुदाई करवाई। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने नालंदा पुरावशेष प्राचीन स्मारक एवं पुरातात्विक स्थल और पुरावशेष अधिनियम 1958 के तहत नालंदा को संरक्षित स्थल घोषित किया है। इस परियोजना के तहत बिना मूल स्वरूप को बदले इसकी देख-रेख और मरम्मत की जाएगी।
यहाँ खुदाई के दौरान कई शिलालेख पाए गए, जिन्हे अब नालंदा संग्रहालय में संरक्षित कर लिया गया हैं।
नालंदा मल्टीमीडिया संग्रहालय: नालंदा मल्टीमीडिया संग्रहालय खुदाई वाली जगह के समीप ही है। यह निजी संस्था द्वारा चलाया जाता है। यहाँ पर 3-डी एनीमेशन और अन्य मल्टीमीडिया साधनों के द्वारा नालंदा के इतिहास को दिखाया जाता है।
नव नालंदा महाविहार: यह एक नया बना हुआ शिक्षण संस्थान है जहाँ दूसरे देशों के छात्र भी पढ़ने आतें हैं। यहाँ बौद्ध धर्म और पाली साहित्य की पढ़ाई और शोध होतें है।
नालंदा पुरातात्विक संग्रहालय: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा नालंदा पुरातात्विक संग्रहालय को संचालन किया जाता है। यह संग्रहालय 1917 में खोला गया था। यहाँ नालंदा और राजगीर से मिली वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है। विश्वविद्यालय की खुदाई में मिले अवशेषों को इसी पुरातात्विक संग्रहालय में रखा गया है।
यहाँ पर मौजूद चार दीर्घाओं में केवल 349 वस्तुओं को रखा गया है जबकी खुदाई में 13,463 वस्तुएं मिली थीं। इनमें बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियां और प्रथम शताब्दी के दो मर्तबान, तांबे की प्लेट, बारहवीं सदी के जले हुए चावल के दाने, पत्थर पर खुदे अभिलेख, सिक्के, तथा बर्त्तन भी इस संग्रहालय में रखा हुआ है। भगवान बुद्ध की बहुत सारी मूर्तियाँ यहाँ पर देखने को मिल जाएगी।
भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के सुझाव पर बिहार सरकार ने पुराने नालंदा विश्वविद्यालय की स्मृति में नालंदा के खंडहरों के पास ही 1951 में, एक नया नालंदा महाविहार स्थापित करवाया जो कि पाली और बौद्ध धर्म के लिए एक आधुनिक केंद्र तरह है। महाविहार का वर्तमान परिसर पटना के महानगर से लगभग 100 किलोमीटर दूर, ऐतिहासिक झील इंद्रपुष्कर्णी के दक्षिणी तट पर स्थित है।
इंद्रपुष्कर्णी झील के उत्तरी किनारे के पास ही नालंदा के प्राचीन विश्वविद्यालय के खंडहर हैं। नए नालंदा विश्वविद्यालय में छात्रों को पढ़ाने की शुरुआत 1 सितंबर 2014 से हुई। पहले वर्ष में यहाँ केवल 15 छात्र थे। विश्वविद्यालय परिसर 455 एकड़ भूमि में फैला हुआ है।
उपसंहार - भारत सरकार ने इस विश्वविद्यालय के लिए 2727 करोड़ देने का फैसला लिया है जबकी ऑस्ट्रेलिया, चीन, थाईलैंड और सिंगापुर जैसे देश भी इसकि आर्थिक मदद कर रहें हैं। संभवतः नालंदा पर हुए आक्रमणों के अतीत को तो नहीं बदला जा सकता लेकिन आज भारत पूनः इस खोई धरोहर संजोने का प्रयास कर रहा हैं।
Great work!
जवाब देंहटाएंGreat✔️
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