शारदीय नवरात्रि श्रध्देय की विशेष कक्षा से.. का तृतीय दिन
नवरात्रि की तृतीया तिथि मां दुर्गा की तीसरी शक्ति देवी चंद्रघंटा को समर्पित है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है।कुलाधिपति श्रद्धेय. डॉ. प्रणव पण्डया जी शारदीय नवरात्र के विशेष कक्षा के तृतीय दिवस श्रीमद् भगवद्गीता में योग साधना का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि योगपद्धति में मन का विशेष महत्त्व है |यह मन बुद्धिजीवी का मित्र भी है और शत्रु भी |दुनिया में अपने उद्धार के लिए किसी अन्य को ढूंढने के बजाय मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार स्वयं करे और अपने को नीचे न गिरने दें। योग साधना की अगली सीढ़ी है योगी के द्वारा तैयार किए हुए आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वशमें रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करना। इस व्यवहार को करते समय भी शरीर, मन, इन्द्रियों आदि की क्रियाओं पर भी अपना अधिकार रहना चाहिये। बाह्य आसन तथा शरीर का विशेष स्थिति में बैठना मन की एकाग्रता के लिए उपयोगी अवश्य हो सकता है किन्तु ऐसा नहीं है कि केवल इतना ही करने मात्र से आत्मविकास के प्रति हम आश्वस्त हो जायेंगे।
इसी नवबेला की खास अवधि का चौथा दिन मां कुष्मांडा को समर्पित है, यह
समृद्ध और शांति का प्रतीक है।माना जाता है कि सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व चारों ओर अंधकार छाया हुआ था,
उस समय किसी भी प्राणी मात्र की उत्पत्ति नहीं हुई थी। जिसके बाद माँ आदिशक्ति ने
अंड" यानी "ब्रह्माण्ड" की रचना की इसी कारण उन्हें कूष्मांडा कहा
जाता है। माँ कुष्मांडा अष्टभुजाधारी एवं मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट धारण किए
अत्यंत दिव्य रूप से सुशोभित हैं। जो जीवन शक्ति प्रदान करने वाला माना गया है।श्रद्धेय ने बताया कि ध्यान योग का अभ्यास करना, शरीर व मन को एक
प्रयोगशाला की भांति बना देना है। जब तक सांसारिक मोह का आवरण बना रहता है, तब तक
प्राणी परमात्मा की अनुकम्पा से वंचित रहता है।- ध्यान-योग के समय काया, ग्रीवा एवं शीश सीधा व अचल रहे। इससे मन को
स्थिरता और शीतलता प्राप्त होती है। साथ ही साधक अपने नासिका के अग्र भाग को देखता
रहे, नेत्र आधे खुले रखे और मेरूदंड सीधा 90 डिग्री के कोण में रखते हुए बैठें।
जिस प्रकार महात्मा बुद्ध और महावीर जी की मूर्ति ध्यानस्थ स्थिति में है ठीक वैसे
ही। ऐसा करने से साधक पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर की ओर अग्रसर होता है और एक
ऊर्ध्वगामी परिपथ का निर्माण होता है। यही परिपथ आत्म ज्ञान एवं परमात्मा प्राप्ति
का दिव्य मार्ग है।श्रद्धेय कहते हैं कि मनुष्य शरीर परमेश्वर का उपहार है। जो ज्ञान प्रधत्व
और पुरुषार्थ युक्त है और भक्ति द्वारा हम परमानंद की प्राप्ति कर सकते हैं, जिसका
प्रथम चरण ध्यान ही है।
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